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जन्म से पहले, मुत्यु के बाद - आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी

Wednesday, September 1, 2021

/ by Dr Pradeep Dwivedi

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी

(पत्रकार एवं आध्यात्मिक लेखक)

      मो0- 06392226268

मनुष्य जब जन्म लेता है, तो उसे पता नहीं होता कि वह कहां से आया है। इसके बाद वह जीवन जीता है, हंसता है, रोता है, खेलता है, खाता है। फिर पढ़ लिखकर तरूण होकर मस्त हो जाता है। इसके बाद वह रोजगार खोजता है, परिवार बसाता है और उसी में व्यस्त हो जाता है। तत्पश्चात परिस्थितियों से जूझता है, सफल व असफल होता है और कई प्रकार के संघर्ष करते-करते त्रस्त हो जाता है और अतंतः समाज के अनुकूल अपने आपको बनाने की कोशिश में पस्त हो जाता है। फिर धीरे-धीरे अपनी जीवन यात्रा पूरी करके वह अस्त हो जाता है। इस तरह उसे अपने जीवन में मृत्यु के बाद की दशा का बोध नहीं हो पाता और वह इस दुनियां से चला जाता है। जीवन का खेल, प्रारम्भ होता है और इसका अन्त हो जाता है।

प्रायः सभी मनुष्यों की एक जैसी कहानी है। इन्हे न जन्म के पहले का बोध होता है और न मृत्यु के बाद की दशा का कोई आभास होता है। जबकि मनुष्य को यह जीवन, जन्म-मृत्यु का रहस्य जानने के लिये ही मिला है। जन्म-मृत्यु का रहस्य जानकर ही मनुष्य परम अवस्था को उपलब्ध हो सकता है। अतः जीवन रहते इसे अवश्य जान लेना चाहिये।
मानव अपनी जीवन यात्रा में कई प्रकार के धार्मिक कृत्य और आचरण करता है जो अधिकतर दिखावटी होते हैं, क्योंकि उसके उद्वेश्य अपने विषयों को ही साधने वाले होते हैं। अधिकांश धर्मिक कृत्य जिसमंे दादा-दादी, माता-पिता का श्राद्ध कर्म भी सम्मिलित है, प्रायः लोकाचार निभाने के लिये ही किये जाते हैं। इस प्रकार वह सब कुछ करते हुये भी कुछ नहीं करता, कारण कि वह वास्तविकता को ठीक से नहीं जान पाता। सत्यता से अपरिचित रहने के कारण व्यक्ति वह सब कुछ करता है जो उससे धार्मिकता के नाम पर करवाया जाता है। यहां आशय यह नहीं है कि व्यक्ति को धार्मिक कार्य नहीं करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जो भी करें समझ के साथ करें, ताकि परिणाम अनुकूल हों।
व्यक्ति को अधिकांश धार्मिक कार्याें में विषमता दिखायी देती है। साथ ही उसे संदेह भी होता है। वह कभी-कभी अपने धार्मिक कार्य को पूर्णतया सही ठहराता है एवं अन्य धर्म या सम्प्रदायों के आचरणों को महत्वहीन समझता है। इस प्रकार वह कुलीन परम्परा का ही निर्वाह करता है, वास्तविक स्वरूप को ठीक से न जानता है, न समझता है। प्रकृति की कोई भी व्यवस्था दोहरी नहीं हो सकती। किन्तु मनुष्य अपनी मान्यताओं के कारण इसे दोहरी अवश्य बना लेता है। व्यक्ति के सोचने का ढंग दोहरा है।
प्रकृति ने जन्म मृत्यु की व्यवस्था सभी प्राणियों को एक जैसी की है। व्यक्ति इन्हें शब्द देता है, अर्थ देता है, तर्क देता है, जो सर्वथा झूठे हैं। व्यक्ति अपने शब्दों से जिस प्रकार अपने कृत्यों को सही ठहराता है, किन्तु उसके वे कृत्य उतने अर्थपूर्ण नहीं होते। इसी तरह जन्म और मृत्यु के विषय में कहे गये शब्द भी अर्थपूर्ण नहीं होते। कारण कि इनके पीछे कोई अनुभव नहीं होता। एक दीपक जलता है, फिर बुझ जाता है। उसमें रोशनी कहां से आयी फिर कहां चली गयी, यह शब्दों द्वारा नहीं समझाया जा सका। इसके लिये हमें उस शून्य में प्रवेश करना होगा, जहां से रोशनी आयी और जहां विलीन हो गयी। यह विषय ध्यानपूर्वक अनुभव करने से ही समझ में आ सकता है। इस विषय में कुछ कहना व्यर्थ है। इसके लिये कोई शब्द उपयुक्त प्रतीत नहीं होते।
जीवन का उद्वेश्य बाहरी परिधि से ऊपर उठकर परमात्म-प्रकाश में अपने को प्रकाशित करने से पूरा हो सकता है। जो कि शब्द और तर्क के परे निष्कलुष, निराकार है। किन्तु अपने अस्तित्व से भिन्न नहीं है। यदि हम अपने अस्तित्व को पहचान लें तो जन्म-मृत्यु का रहस्य भी समझ में आ सकता है। वास्तव में अपने से पृथक कोई संसार, कोई ईश्वर, कोई सत्ता है ही नही। जो कुछ भी है, वह अपने भीतर है। आकाश या अंतरिक्ष के भीतर जो भी है, यही दुनियां है और यहीं ईश्वर भी है। यहीं हमारी आत्मा भी है। हम कहीं जाते हैं, कहीं से आते हैं तो इसके बाहर कहीं न जाते हैं न कहीं से आते हैं। सब यहीं है। जन्म भी इसी में है और मृत्यु भी इसी में है।
आत्मा और परमात्मा को व्यक्ति उस रूप में स्वीकार करता है, जैसे कि उसके मन-मस्तिष्क में थोप दिया जाता है। ईश्वर की कल्पना हिन्दू राम-कृष्ण के रूप में, मुस्लिम खुदा के रूप में, ईसाई बाइबिल के आधार पर परमेश्वर के रूप में, बौद्ध गौतम बुद्ध के वचनों के आधार पर तथा जैन महावीर वाणी के अनुसार करता है। किन्तु इस ब्रह्माण्ड में ईश्वर और आत्मा के स्वरूप अलग-अलग कैसे हो सकते हैं। सम्पूर्ण विश्व की व्यवस्था एक जैसी है।
सम्प्रदाय एवं धार्मिक मान्यता के अनुसार पृथक-पृथक नहीं है। मनुष्य के जन्म और मृत्यु की प्रणाली एक जैसी है। फिर अलग-अलग कल्पना कर मान्यतायें स्थापित कर, आखिर हम कहना क्या चाहते हैं? और करना क्या चाहते हैं? या तो हमारी मान्यतायें झूठी हैं या हम इन्हें ठीक से समझना नहीं चाहते या नहीं समझे। मनुष्य का मस्तिष्क सत्य पर आधारित नहीं बल्कि मस्त-व्यस्त-त्रस्त-पस्त संसार पर आधारित है। जिसमें बदहवासी और कोरी दौड़-धूप है। कल्पनायें हैं, भावनाये हैं, तरह-तरह के उद्वेश्य हैं। आपाधापी है। इस बीच यह अपने भीतर काम चलाऊ ईश्वर की खोज भी कर लेता है। उसे पता नहीं कि इस खोज में सत्यता कितनी है, असत्यता कितनी है?
अपने-अपने सम्प्रदायों और धर्म में घोषित आत्मा-परमात्मा के आसपास ही जन्म-जीवन और मरण होता है। ईश्वर या परमात्मा हमारे भीतर ही धड़कता है। प्राणी की श्वांस से उसका सेतु बना है। इस सेतु से जुड़ने का अभ्यास मनुष्य को करना चाहिये। व्यर्थ की बातें नहीं करनी चाहिये। अपनी आती-जाती श्वास पर नजर रखकर ध्यानपूर्वक देखना चाहिये कि हम क्यों हैं?
जन्म के पहले क्या था और मृत्यु के बाद क्या होगा? यह प्रश्न इसी तरह का है जैसे कोई पूछे कि आज से 100 वर्ष पहले क्या था और आज से 100 वर्ष बाद क्या होगा? विश्व की व्यवस्था पहले भी थी, आगे भी रहेगी। प्राणी वही होगा जो वो होना चाहता है। व्यक्ति की चाह यदि निम्न स्तर की है तो वह निश्चित ही इसे जान सकेगा। क्योंकि जहां चाह होती है, वहां की राह भी मिल जाती है।
ईश्वर निराकार है। प्राणी की आत्मा निराकर है। मृत्यु का भाव भी निराकार है। इसको साकार स्वरूप में जाना ही नहीं जा सकता। हम अपने विपरीत लिंग में स्त्री-पुरूष के प्रति, पुरूष-स्त्री के प्रति समर्पण कर एक-दूसरे में खो जाते हैं। इस समर्पण में जब तक बाधा नहीं आती, तब तक परिवार की व्यवस्था ठीक से चलती रहती है। इनके बीच जब प्रश्न खड़े होने लगते हैं, तब तरह-तरह की परेशानियां सामने आने लगती हैं। इसी प्रकार ईश्वर की प्राप्ति, आत्मा के स्वरूप और मृत्यु के विषय में अधिक प्रश्न उपस्थित न करते हुये इसे ठीक तरह से समझें। इनके प्रति समर्पित भाव रखें। तर्क और शब्द जाल में न फंसें। बस अनुभव करें तो इनके बीच ही हमें आनन्द प्राप्त होने लगेगा और फिर जन्म-मृत्यु का रहस्य भी समझ में आने लगेगा।
अनुभव करें कि क्या है? फिर इसकी आनंदपूर्ण अनुभूति में खो जायें। इसके अतिरिक्त कुछ करना ही नहीं है। जो कुछ है उसे सहज भाव से स्वीकार करना है, बस। मन-वचन-काया की क्रिया कभी भी सत्य के साथ नहीं होती। जबकि व्यक्ति इन्हीं पर विश्वास करता है और यह विश्वास उसे अधिक समय तक संतोष नहीं देता। श्मशान से लौटते हुये मृतात्मा के विषय में थोड़ी बहुत चर्चा होती है, फिर धीरे-धीरे यह चर्चा बन्द हो जाती है। इसके बाद दैनिक जीवन ज्यों का त्यों चलने लगता है। कोई किसी के लिये अधिक समय तक नहीं रोता। श्मशान में जो आभास होता है, वह शीघ्रता से बाहर निकल जाता है। उसका बोध बहुत समय तक प्राणों में समाया नहीं रहता।
जन्म के पहले क्या था और मृत्यु के बाद क्या होगा? इस विषय में कई सम्प्रदायों के निष्कर्ष एक जैसे हैं। किन्तु हम इन्हें अलग-अलग प्रकार से समझने का प्रयास करते हैं। कोई भी सम्प्रदाय जब अपनी बात कहता है तो सामान्यजन के हृदय में उत्साह भर आता है और मन बहुत प्रकार के निष्कर्ष निकालने लगता है। ये निष्कर्ष उसके अपने होते हैं। सम्प्रदाय के नहीं। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति किसी भी तथ्य को अपनी-अपनी दृष्टि से सोचता है और आश्चर्य यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक प्रकार के शब्द, भाषा, भाव समझ में आते हैं, क्योंकि इनसे वैसा ही कहा जाता है। जिससे व्यक्ति को अपने स्वभाव अनुसार इसे समझ में आ सके। अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को समझाया जाता है न कि वास्तव में बताया जाता है।
यदि ईश्वर, खुदा, परमात्मा को रहस्यपूर्ण न माना जाये तो हम इसे अपने भीतर ही पा सकते हैं। इसे भीतर खोजा जाये तो न कोई प्रश्न रहते हैं और न कोई उत्तर। अपने आप या पूर्ण गुरू से बोध कर लेने से सब कुछ समझ में आने लगता है। साथ जन्म-मृत्यु का बोध स्वयं ही हो जाता है। फिर हमारे भीतर राग-द्वेष, वैमनस्य, अशांति, तनाव, चिन्ता, घृणा या नफरत स्वयं समाप्त हो जाते हैं और हम एक नेक इंसान बन जाते हैं। जो किसी भी परिस्थिति में जीवन-जगत को सही रूप में देखता है और जीवन-जगत को सही रूप में देखना ही जन्म-मृत्यु के रहस्य से परिचित होना है।
ईश्वर और आत्मा को होने या न होने में कोई रूचि नहीं है। कारण कि जो स्वयं अस्तित्व में है, उसके लिये सोचना-विचारना क्या और इसे न जीने की चिन्ता है और न मरने का भय। आत्मा शरीर को कपड़े की तरह बदलती है तो बदलती है बस। इसमें वह सोच-विचार नहीं करती। क्योंकि इसका ऐसा ही स्वभाव है। यह अनादि-अनन्त है। कब, क्यों, कहां, कैसे आदि की बातें बहुत बाहरी हैं। हमारा वास्तविक अनुभव ही आत्मानुभव है। जिसे हम करना नहीं चाहते। दरअसल, हम बहुत प्रकार के मुखौटे अपने ऊपर लटकाये हुये हैं, इसलिये वास्तविकता की पहचान नहीं करते।
अतः पहले अपने भीतर जायें, पहचान करें कि मैं हूं या नहीं हूं? और हूं तो क्यों हूं? यदि मै नहीं हूं तो यह सोचने-समझने, जानने-देखने, सूघने-चखने, स्पर्श करने वाला कौन है? माना कि इन्द्रियों से आत्मा-परमात्मा को नहीं जाना जा सकता। लेकिन हम जिन इन्द्रियों से सुख-दुख का बोध करते हैं, उस हम को तो हम जान ही सकते हैं। यदि हम नहीं जान सकंेगे तो फिर कौन जान सकेगा? इन्द्रियों के माध्यम से हमारे भीतर बैठी आत्मा जीवन-जगत का अनुभव करती है। यह अनुभव लेने के लिये किसी सम्प्रदाय विशेष की आवश्यकता नहीं है।
केवल हम ही हैं जो हम को समझ सकते हैं, कोई दूसरा नही। ईश्वर कुछ हमारे लिये करेगा, ऐसा कुछ भी होने वाला नहीं है। क्योंकि हम ही हमारे अस्तित्व के स्वामी हैं। क्योंकि जन्म मेरा हुआ है, इसलिये मृत्यु भी मेरी ही होगी। अतः मैं ही अपना तारणहार हूं। मैं ही अपने को स्वतंत्र या मुक्त कर सकता हूं। जिससे इस मृत्यु के बाद हमारा पुनर्जन्म न हो, जो हम करेंगे वही होगा।
मनुष्य की सही सोच-समझ ही उसके जीवन के रहस्य को खोलने वाली है। हम बाहरी दुनियां को यथार्थ मान लेते हैं। जबकि बाहरी अनुभव भी हमें ही होता है और कोई भी तथा आखिर अपने पर ही समाप्त भी हो जाता है। अर्थात जो भी है, हम ही हैं, हमारे बाहर कुछ भी नहीं है। जब जीव है तो इसे जन्म देने या नया शरीर धारण कराने वाला भी कोई न कोई अवश्य ही है। चाहे यह प्रकृति क्यों न हो। इसे कोई भी नाम दिया जा सकता है। अतः जीव मात्र से प्रेम आवश्यक है। क्योंकि यही परमात्मा रूप है। इसका स्पंदन, इसका देखना, रहना सब इसके अस्तित्व की सूचना है और इसका सुधार ही अस्तित्व का सुधार है।
जिसे न आंखों से देखा जा सकता है, न जिह्वा से स्वाद लिया जा सकता है और न ही अन्य इन्द्रियों से इसे जाना जा सकता है। और न ही तप या कर्मकाण्ड से इसकी अनुभूति की जा सकती है। जिसका मन पवित्र और शांत है एवं जो सत्य से पूर्ण निर्मल ज्ञान या ध्यान की सहायता से आत्मा का चिन्तन करता है, उसे तत्व का सही बोध होता है। एवं उसे जन्म-मृत्यु का अनुभव भी होता है। अतः कुछ जानने के लिये शांत-मौन और मन से पवित्र हो जाओ।
इन्द्रियां जहां असफल हो जाती हैं। जहां मन और बुद्धि भी विफल हो जाती है, जहां मस्तिष्क या तर्क बुद्धि काम नहीं करती, वहां प्रेम या समर्पण काम कर जाता है। अपने आप को पूर्णतः प्रकृति को सौंप देने से आत्मकल्याण हो सकता है। ऐसे आत्मा-परमात्मा को खोजने से वह कभी नहीं मिलने वाला। क्योंकि जो समझ में आ जाता है वह खुदा होता ही नहीं है। परमात्मा समझ से परे है। इसे समझना नहीं है। स्वयं के भीतर अनुभव करना है और आनन्दपूर्ण हो जाना है।
एक कथा है कि ब्रह्मा जी ने जब सारी स्रष्टि रच ली, समस्त प्राणियों को पैदा कर दिया तो उन्हें एक समस्या ने घेर लिया, क्योंकि उन्होने मनुष्य के मस्तिष्क को इस तरह बना दिया था कि वह दुनियां के किसी भी स्थान पर आ-जा सकता था एवं किसी भी वस्तु एवं उसके रहस्य का पता लगा सकता था। ब्रह्माजी के सामने समस्या यह थी कि मनुष्य खोज करता हुआ यदि मेरे पास आ गया तो फिर मै क्या करूगां? मैं कहां जाऊंगा? अतः इससे बचने का उपाय उन्होने भगवान विष्णु से पूछा। उन्होंने ब्रह्मा जी को जो उपाय बताया वह बहुत रोचक है। उन्होने कहा कि ब्रह्मा जी मनुष्य खोजी है। अतः अतः दुनियां के समस्त स्थानों में जाकर खोजेगे और इस तरह आपको भी खोज लेगा। अतः आपको इससे बचने का एक उपाय है कि आप मनुष्य के हृदय में छिप जायें। मनुष्य आपको बाहर खोजता रहेगा। वह यह जान ही नहीं पायेगा कि उसी के भीतर आप विराजमान हैं। कथा कहती है कि ब्रह्मा जी ने विष्णु भगवान की यह बात मान ली और वे मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गये। मनुष्य उन्हें बाहर खोज रहा है, और वे आराम से उसी के भीतर बैठे हैं।
देखा जाये तो सभी मत या सम्प्रदाय प्रकारान्तर से एक जैसा कथन ही कहते हैं। हम जिस दर्शन पर विचार करने लगते हैं, वहीं सही प्रतीत होने लगता है। कारण यह है कि सब सही हैं। क्योंकि जानने वाली शक्ति आत्मा है, जो परमात्मा स्वरूप है और जब हम इनमें भेदभाव करने लगते हैं तो तनाव से घिर जाते हैं। आत्मा परम शुद्ध-बुद्ध है। यह किसी भी प्रकार की चिन्ता या तनाव अपने भीतर स्वीकार नहीं करती। सच बात तो यह है कि प्रत्येक प्राणी के भीतर वही एक समान आत्मा बैठी है। इसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। क्योंकि सभी की आत्मायें गुण, स्वभाव से मूल रूप से एक हैं। अतः भेदभाव करने या दोहरी बात सोचने की कही आवश्यकता नहीं है।
व्यक्ति निर्णय लेता है और उसका निर्णय तभी सही होता है, जब सत्य पर खड़ा हो। शिखर पर खड़ा व्यक्ति जब नीचे देख्ता है तो वह कहता है- मैं ऊपर हूं। नीचे वाला कहता है- मैं नीचे हूं। ये दोनों कथन व्यक्ति के अपने निर्णय हैं। जबकि सत्य का अनुभव दोनों पर्वत की अपेक्षा से कर रहे हैं। किसी के पास धन होता है तो वह धनवान कहा जाता है। किसी के पास धन नहीं होता, तो वह गरीब कहा जाता है। जबकि व्यक्तिगत रूप से वे दोनों मनुष्य हैं। उन दोनों में प्राण तत्व समान हैं। उनके जन्म मरण की प्रक्रिया समान है।
व्यक्ति सीढ़ी चढ़ता है, एक पैर उठाता है, दूसरा उठाने के पहले, एक पैर जमाये रखता है। ताकि दूसरा उठा सके। यह नियम है। दोनों साथ उठायेगा तो गिरेगा और एक भी नहीं उठा पायेगा और आगे नहीं बढ़ पायेगा। मृत्यु इसलिये होती है ताकि नया जन्म हो सके। नया जन्म इसलिये होता है कि इस शरीर के बाद नया शरीर धारण करने के लिये मृत्यु हो सके। जीव के कर्मभोग उसे पुनः जन्म लेने के लिये बाध्य करते रहते हैं।
व्यक्ति मृत्यु के विचार को जीवन में लाने से डरता है। इसलिये उसे सत्य का बोध नहीं हो पाता। व्यक्ति मृत्यु के बारे में जब भी सोचता है तो उससे अपनी आंखे शीघ्र चुरा लेता है। वह यही कोशिश करता है कि वह मृत्यु के विषय में बिल्कुल भी न सोचे। लेकिन सोचना अवश्य होता है। दमित रूप में ही सही। मृत्यु को प्राणी जीवन भर अपने प्राणों में बसाये रखता है। हमारी व्यवस्था मृत्यु की सच्चाई को झुठलाने का प्रयास करती है। जबकि यह अवश्य ही घटित होती है। यह भविष्य की अनिवार्यता है। जो प्रति समय घटित होती है। मृत्यु प्रतिफल भविष्य को वर्तमान से जोड़ती हुयी चलती है। मृत्यु आकस्मिक नहीं, बल्कि एक विकास है। जो जन्म के दिन से शुरू होती है। अतः मृत्यु को होश सम्भालने के साथ ही जानना चाहिये।
जीते जी ऐसे जिये जैसे यह जीवन एक खेल है। इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसे सहजता से लेना, कठिनायी महसूस नहीं करना। फिर मृत्यु आये तो इसे भी सहज भाव से स्वीकार करना। यही उपाय है, जिसे जानकर आप मृत्यु के रहस्य जान सकंेगे। अंतिम समय में गंगाजल पड़ जाये तब भी मृत्यु के रहस्य को नहीं जान सकोगे। इस तरह के उपाय मात्र मन को समझाने वाले हैं। मृत्यु जीवन विरोधी नहीं है। बल्कि सहायक है। संसारी प्राणी की जीवन प्रक्रिया मृत्यु की प्रक्रिया से जुड़ी हुयी है। मृत्यु जीवन से पृथक नहीं है। इसलिये जागरूक होकर इसका अनुभव कीजिये। जब यह आये तो इसका स्वागत कीजिये, इसे स्वीकार कीजिये।
जन्म और मृत्यु के बीच जो जीवन है, इसे आनन्दपूर्वक जीना चाहिये। इस तथ्य का पता लगाना चाहिये कि हम कहां से आये हैं और मृत्यु के बाद हमें कहा जाना है। इस रहस्य को जो जान लेता है वह मृत्युंजय हो जाता है। क्योंकि मनुष्य का जीवन एक फटी हुयी किताब की तरह है। जिसके आरंभ और अंत के पृष्ठ कहीं खो गये हैं। अर्थात इसे पता नहीं कि जन्म के पहले वह क्या था और मरने के बाद उसका क्या होगा?
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